chai pe charche...
इन चाय के प्यालों को देखकर हम चारों कि यारी याद आती है, स्कूल के पास वाली चाय कि गुम्टि दोबारा से नज़र आती है। पैसे भले ही पूरे किसी के पास ना हो लेकिन जाते रोज़ वहा थे, बाते कुछ भी ना हो पर ठहाके वहा रोज़ लगाते थे। बारिश धूप ठण्डी कुछ भी हो रोक नही पाती थी, क्लास मे बैठे बैठे भी वो चाय कि चुस्कियां ही दिमाग मे आती थी। स्कूल का दुख तो नही पर किस्से ज़रूर एक दूसरे को सुनाते थे, जिस दिन छुट्टी हो उस दिन जाने के लिये घर पे बहाने बनाते थे। चाय वाले भैया को परेशान करने मे बहुत मज़ा आता था, पर क्या करे उन्हे भी तो इसमे ही प्यार नज़र आता था। याद है एक बार जब चारों मे लड़ाई हुई थी, भैया से सबसे पसंदीदा पूछने कि बात हुई थी। जवाब भी याद है भैया ने हसते हुए कहा था तुम लोगों कि यारी पता नही ये सुनते ही कैसे लड़ाई हो गयी गायब सी हमारी। चाय तो बहुत जगह कि पी लेकिन उसका मुकाबला कोई नही कर पाती है, उन प्यालों कि गूंज आज भी जबां पर अपना जादू दिखा जाती है। उस चाय मे कुछ अलग ही बात थी, कैसे ना हो भला उसमे दोस्ती कि जो मिठास थी। यादे बनाते बनाते वो वक़्त कब निकल गया पता ही नही चला, स्कूल भी...
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